जॉन को चाहने वाले उन्हें औलिया का दर्जा देते हैं। जॉन की रचनाओं में एक दर्शन है जो उन्हें औरों से ख़ास बनाता है। खुद को अपनी बर्बादी का जिम्मेदार मानना और फिर पूरी दुनिया के सामने उसे बेझिझक कह डालने का साहस जॉन के अलावा शायद ही किसी में हो। 80-90 के दशक के मुशायरों में एक हाथ में जाम, एक हाथ में सिगरेट लेकर जब जॉन स्टेज पर आते थे,तब लोगों की उनके प्रति दीवानगी का नजारा देखने लायक होता था।
जॉन का जन्म उत्तर प्रदेश के अमरोहा में हुआ था। बंटवारे के बाद वो पाकिस्तान चले गए। अपने वतन से बिछड़ने का मलाल उन्हें ताउम्र सताता रहा है। अमरोहा से अपनी हिजरत के दर्द को कुछ इस तरह बयाँ करते हैं-
हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं|
धूप थे सायबाँ के थे ही नहीं|
अब हमारा मकान किस का है? ,
हम तो अपने मकाँ के थे ही नहीं|
उस गली ने ये सुन के सब्र किया,
जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं।
ज़िंदगी को बेतरतीब ढंग से जीने की चाहत और दर्द को अपना हमसफर बना लेने की ज़िद जॉन के शब्दों में साफ झलकती है। जॉन ने बेचैनी और बेबसी को जिस सलीके से परोसा वो अपने आप में एक मिसाल है। वो लिखते हैं~
चारासाजों की चारासाज़ी से दर्द बदनाम तो नहीं होगा?
हाँ! मुझको दवा दो, मगर इतना बता दो,
मुझे आराम तो नहीं होगा?
जॉन के ये क़तात हर उस शख्स के सामने से गुजरे होंगे, जिनके सीने में मोहब्बत का फूल एक बार भी खिला होगा। जिसको सुबह की घाँस पे पड़ी ओस की मुस्कुराती बूंद पसंद आती होगी, उसे जॉन की ये लाइनें जरूर पसंद आएँगीं।
~किसी लिबास की खुश्बू जब उड़ के आती है,
तेरे बदन की जुदाई बहुत सताती है
तेरे बग़ैर मुझे चैन कैसे पड़ता है,
मेरे बग़ैर तुझे नींद कैसे आती है।
शायरी में जॉन की इमानदारी का कोई सानी नहीं है। वो लड़की जिसे जान से बढ़कर चाहते थे, जॉन आज उसका नाम तक भूल चुके हैं। इस बात को स्वीकार करते हुए जॉन कहते हैं-
~ अजब था उसकी दिलदारी का अंदाज़,
वो बरसों बाद जब मुझसे मिला है,
भला मैं उससे पूछता तो कैसे,
मता-ए-जाँ तुम्हारा नाम क्या है?
मोहब्बत को सादगी के साथ पेश करने का हुनर भी जॉन को खूब आता था। दो प्यार करने वालों के बीच बेवजह का अदब और लिहाज जॉन को पसंद नहीं था। जॉन कहते हैं~
शर्म, दहशत, झिझक, परेशानी
नाज़ से काम क्यूँ नहीं लेतीं,
आप, वो, जी, मगर ये सब क्या है?
तुम मेरा नाम क्यूँ नही लेतीं?
जॉन अपने नाम को लेकर बहुत संजीदा थे। उनका व्यक्तित्व फक्कड़ों-फकीरों वाला था। अपने नाम (जॉन) से उन्हें बहुत मोहब्बत थी। अपनी ज्यादातर रचनाओं में जॉन ने अपने नाम को बहुत ही रचनात्मक ढंग से प्रयोग किया है, जैसे वो लिखते हैं~
क्या कहा, दुबारा कहो, "जॉन"... "जॉन एलिया"
दिल में तीर सा गड़ गया, ये किसका नाम ले लिया।
जॉन ने मुशायरों की दुनिया में बहुत नाम कमाया। एक वक़्त ऐसा भी आया जब शराब की लत में जॉन ने खुद को लगभग खत्म कर लिया, लेकिन जॉन को इस बात का रत्ती भर अफसोस नहीं रहा। 8 दिसंबर 2002 को जॉन इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह गए। अदब की दुनिया का एक सितारा हमारी आँखों से ओझल हो गया।
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