अपने घर से अलग एक घर बसाने और पिछले घर को हमेशा के लिए भुला देने का दर्द हममें से कइयों के लिए बहुत मुश्किल है पर किन्नर समुदाय के लोगों को अपने हर जन्म में इस समस्या से दो-चार होना पड़ता है| जिसका एक प्रमुख कारण है समाज में इनकी अस्वीकार्यता.
हम तथाकथित सामान्य लोगों के लिये ‘उपेक्षा’ महज़ एक बुरा शब्द भर है| लेकिन किन्नर समुदाय के लोग इस शब्द को हर चौराहे, हर गली, हर गांव में इतना महसूस करते हैं (या इन्हें महसूस कराया जाता है) कि ‘उपेक्षा’ शब्द अदृश्य रूप में इनके जीवन का एक सामान्य हिस्सा बन जाता है
दुनिया की तमाम क्रांतियों का इतिहास देखने से पता लगता है कि सभी क्रांतियों का कारण था लोगों का शोषण और लोगों की उपेक्षा | उनमे से कुछ क्रांतियां सफल हुईं और कुछ को सफलता नही मिली | जिन्हें सफलता मिली उनके पास संख्या बल और कुशल नेतृत्व था| इन दोनों की कमी किन्नर समुदाय की एक बड़ी समस्या रही है
आज के तेजी से बदलते दौर में किन्नर समुदाय की स्थिति : कहा जा रहा है कि 21वीं शताब्दी बदलाव की है और वक़्त के साथ किन्नर समाज के प्रति लोगों की सोच में बदलाव भी आया है हालांकि यह बदलाव काफी नही है
वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तीसरे जेंडर के रूप में मान्यता प्रदान करना एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है |
किन्नर समुदाय की राजनीति में भागीदारी: किसी समुदाय की स्थिति में सुधार की गुंजाइश तब बढ़ जाती है जब देश की नीति निर्माण में उस समुदाय का प्रतिनिधित्व हो |
वर्ष 2014 के आम चुनावों में 6 ट्रांसजेंडर्स ने भाग लिया लेकिन जीत नही मिली और संसद में ट्रांसजेंडर्स की अनुपस्थिति का सिलसिला कायम रहा |
भारतीय राजनीति में इस समुदाय की एंट्री 20वीं शताब्दी के अंत मे हुई जब शबनम बनो ने 1998 ई. में मध्यप्रदेश विधानसभा सदस्य के रूप में शपथ ली |
झलकियां
आशा देवी- मेयर (गोरखपुर) 2001
कमला किन्नर- मेयर (सागर) 2009
मधू किन्नर- मेयर (रायगढ़) 2015
आज आधी आबादी होने के बावजूद भारतीय राजनीति में महिलाएं नीति- निर्माण में हासिये पर हैं| इसलिये किन्नर समुदाय के प्रति सामाजिक सोच में किसी बहुत बड़े बदलाव की उम्मीद एक बेईमानी लगती है हालांकि उम्मीद और कोशिश आज भी एक ज़िंदा शब्द हैं
~आज़म मलिक
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